December 25, 2017

अफ्रीकियों के विचार में क्यों हैं हम भारतीय अधिक शिक्षित



मैंने 1982–84 में दो वर्ष तक पश्चिम अफ्रीकी देश लाइबेरिया में अध्यापन कार्य किया था. मैं वहां की एक मात्र युनिवर्सिटी के एग्रीकल्चर कॉलेज में होर्टीकल्चर का असिस्टैन्ट प्रोफ़ेसर था. होर्टीकल्चर का वहां कोइ स्वतंत्र डिपार्टमेंट नहीं था और यह एग्रोनोमी, यानि फसल विज्ञान के अंतर्गत था. कॉलेज में केवल बी एस सी तक की ही क्लासें थीं. इसलिए इस विभाग में अधिक स्टाफ नहीं था. कुल पांच अध्यापक, एक क्लर्क, जिसे वहां सेक्रेटरी कहा जाता था, और दो लेबोरेटरी सहायक थे. मैं अंतिम वर्ष के छात्रों को पढाता था. क्लास में 15-20 लड़कियों को मिला कर, कुल 55 विद्यार्थी थे. वहां का तौर तरीका हमारे यहाँ से काफी अलग था. वे लोग कहा करते थे कि उनकी सभ्यता और रहन सहन पर अमरीकन प्रभाव है.
कॉलेज में मेरे सहयोगी, बाएं से दूसरे स्थान पर डीन डा. सियो हैं.
वहां के विद्यार्थी प्रोफेसरों को हमारे यहाँ के विद्यार्थियों की तरह सर से सम्बोधित न कर करके केवल प्रौफ, डॉक या फिर कभी नाम लेकर भी बुला लिया करते थे. क्लास में हैमबर्गेर और कोक की बोतल हाथ में पकड़ कर भी आ जाया करते थे. जब प्रोफैसर क्लास में दाखिल होता, तो सब बैठे ही रहते थे और जैसे हमारे यहाँ होता है, कोइ भी सीट से उठ कर खड़ा नहीं होता था. कहा जाता था कि यह अमरीकन कल्चर के कारण है.
मुझे यह बातें बहुत अखरतीं थी और मैंने अपनी क्लास में इन बातों के लिए विद्याथियों को टोकना शुरू कर दिया. मेरी बात शायद उन लोगों को फिजूल की टोका टोकी लगी. कुछ विद्यार्थियों ने डीन को बता दिया कि यह नया इन्डियन प्रोफ़ेसर तो तंग कर रहा है. मेरी जब डीन से बात हुई तो मैंने उनको समझाया कि हमारे यहाँ तो ऐसा नहीं होता. मेरे लिए अगर कोइ छात्र क्लास में लेक्चर के दौरान हैमबर्गेर खा रहा हो, तो पढ़ाना संभव नहीं था. बाद में मेरी बात मान ली गयी और मेरे क्लास में छात्रों का बर्ताव दूसरा यानि भारतीय विद्यार्थियों जैसा हो गया. उनको ऐसा करने की आदत नहीं थी. इसलिए उनको शायद मेरा व्यवहार अजीब लगता था.

मैं,सोको (लाल कमीज़ में) और एक अन्य क्लर्क  

एक दिन डिपार्टमेंट का क्लर्क, जिसका नाम सोको था, मेरे पास आया. उसके हाथ में एक विज्ञापन था, जो उसको किसी ने भारत से भेजा था. इस विज्ञापन में में एक तावीज़ के बारे में लिखा गया था और कहा गया था कि यह तावीज़ एक बड़े महात्मा द्वारा मन्त्रों से सिद्ध किया गया है और जो भी इसको विधिविधान से और पूर्ण श्रद्धा से धारण करेगा, उसकी सभी मनोकामनाएं पूरी होंगी. मैंने देखा था कि इस किस्म के विज्ञापन वहां लोगों के पास अक्सर आया करते थे. भारत में इस किस्म का सामान बेचने वाले लोग किसी प्रकार से वहां के लोगों के पते हासिल कर लिया करते थे और फिर चिट्ठियाँ भेजते रहते थे. जरूर उनको अपनी चीजों के ग्राहक मिल जाते होंगे. तभी यह सिलसिला चल रहा था.
लाइबेरिया में उस समय (मुझे आज की स्थिति का पता नहीं है) अमरीकन डॉलर ही  बतौर करेंसी प्रयोग होता था. उनकी अपनी करेंसी भी थी पर यह एक डॉलर के सिक्कों तक ही सीमित थी. नोट केवल अमरीकन डॉलर के ही होते थे जो अमरीका से आते थे. असल में उस समय लाइबेरिया दुनिया का एकमात्र ऐसा देश था जहां आप अमरीका में ना रहते हुए भी अमरीकन पैसा यानि डॉलर कमा सकते थे. देश से बाहर पैसा भेजने की भी कोइ रुकावट नहीं थी. दस बीस या पचास डॉलर भेजने के बैंक जाने की जरूरत नहीं होती थी और लोग इतनी रकम के नोट चिट्ठी के साथ लिफ़ाफ़े में ही डाल कर भेज दिया करते थे.   

सहयोगियों संग एक पार्टी में
तावीज़ का मूल्य पचास डॉलर था. लाइबेरिया के हिसाब से यह रकम कोइ ज्यादा नहीं थी. क्यों कि भारत में उस समय विदेशी मुद्रा सुलभ नहीं थी, इसलिए पचास डॉलर के इंटर नेशनल रिप्लाई कूपन, जो भारत में डाक खानों में उपलब्ध होते थे और जिन्हें कोइ भी खरीद सकता था, भेजने को कहा जाता था. इस प्रकार की चिट्ठिया वहां खूब आती रहती थीं.
मैंने सोको को बताया कि ऐसा कोइ तावीज़ नहीं होता और यह आदमी कोइ त्र्हाग है. इसलिए वह अपने पैसे बर्बाद ना करे. पर सोको को मेरी बात कया ज़रा भी विश्वास नहीं हुआ और न ही मेरे समझाने का कोइ असर हुआ. उसने मुझे जोर देकर कहा कि मेरा कहना सही नहीं है. भारत में ऐसी चमत्कारिक चीजें अवश्य होती हैं और यही कारण है कि भारत में इतने पढ़े लिखे लोग हैं. क्योंकि अफ्रीका में ये सुविधाएँ नहीं हैं, इस कारण यहाँ के लोग पढाई लिखाई में पीछे रह जाते हैं.
और फिर उसने मेरे समझाने के बावजूद पचास डालर भेज दिए. कुछ सप्ताह के बाद उसको यह तावीज़ आ भी गया. यह एक साधारण लौकेट था जिस पर देवी दुर्गा की तस्वीर थी और अजीब सी भाषा में कुछ लिखा हुआ था. साथ में एक काज था जिस पर इस लौकेट को धारण करने की विधि लिखी थी.
सोको ने पूर्ण श्रद्धा से इस लौकेट को पहन लिया था. पता नहीं उसकी मनोकामना पूरी हुई या नहीं क्योंकि इसके कुछ सप्ताह बाद ही मैं अपना टीचिंग अनुबंध पूरा कर के वापिस भारत आ गया था.    

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